इसी दिसंबर महीने के पहले दिन मैंने आशंका जाहिर की थी कि नोटबंदी का फैसला बेरोजगारी को बढ़ावा देने का कारण बन सकता है। मैंने कहा था- ‘’हमारे देश में कालेधन की एक समानांतर अर्थव्यवस्था है जो सरकारी व्यवस्था से भी ज्यादा मजबूत है। ऐसे में जब हम कालेधन पर प्रहार करने या उसे खत्म करने की बात करते हैं तो हमें इस बात का पुख्ता इंतजाम भी करना होगा कि जिन लोगों की आजीविका जाने अनजाने में उस कालेधन पर चल रही थी उनका क्या होगा?… जो लोग ऐसे संस्थानों में काम कर रहे थे या कर रहे हैं, उन्हें तो शायद पता भी नहीं होगा कि उनके मालिक का धन किस स्रोत से आ रहा है।…अब यदि ऐसे लोगों को नौकरियों या काम से निकाला जाता है तो वे कहां जाएंगे, उनकी क्या व्यवस्था होगी? शायद इस बारे में अभी तक न तो सोचा गया है और न कोई बात हो रही है। तो क्या कालेधन को रोकने का यह सकारात्मक कदम देश में बेरोजगारी की एक नई लहर लेकर आएगा?’’
और यह आशंका सच होती दिखाई दे रही है। इसी माह मध्यप्रदेश के दो बड़े मीडिया समूहों ने अपने अपने स्तर पर इस बात का पता लगवाया कि नोटबंदी का लोगों के रोजगार पर क्या असर पड़ा है? एक अखबार के सर्वे में सामने आया कि करीब एक लाख लोगों से रोजगार छिन गया। कंपनियों ने काम के घंटे कम कर दिए और ओवरटाइम पूरी तरह बंद हो गया। बुरहानपुर जैसी जगह पर 40 हजार में से 12 हजार पॉवरलूम बंद होने से कई बुनकर परिवारों के सामने रोजी रोटी का संकट आ गया है। कच्चा माल उपलब्ध नहीं होने से उत्पादन 70 प्रतिशत तक घट गया है।
इसी तरह दूसरे अखबार ने मध्यप्रदेश के 32 जिलों की 110 से ज्यादा कंपनियों का सर्वे कर जानकारी दी है कि नोटबंदी के कारण 28 फीसदी लोग बेरोजगार हुए हैं। छोटी कंपनियों में 65 प्रतिशत, मंझली कंपनियों में 25 प्रतिशत और बड़ी कंपनियों में 20 प्रतिशत तक कर्मचारियों/मजदूरों की छंटनी की गई है। सप्ताह में छह दिन के बजाय दो या तीन दिन ही काम मिल पा रहा है।
500 और 1000 के नोट बंद होने, अर्थव्यवस्था के कैशलेस या डिजिटल होने, देश से कालाधन या भ्रष्टाचार दूर होने जैसे मुद्दे अपनी जगह हैं, लेकिन लोगों का बेरोजगार हो जाना इन सबसे ऊपर और सबसे गंभीर मसला है। चिंता की बात यह है कि मीडिया से लेकर सरकार तक का ज्यादा जोर बैंकों में नोट जमा करने या न करने, एटीएम से पैसा निकलने या न निकलने, नए नोटों की छपाई गलत होने या उनका रंग उड़ने पर है। लेकिन लोगों की जिंदगी से उड़ रहे रंग पर न तो गंभीरता से कोई बात हो रही है न ही उस तरफ वैसा ध्यान दिया जा रहा है।
सरकारी एजेंसियां छापेमारी कर नए पुराने नोट और सोना चांदी बरामद कर वाहवाही लूटने में लगी हैं। लेकिन बेरोजगार होते लोगों और उनके परिवारों की पीड़ा कोई नहीं देख रहा। मीडिया में आ रही बेरोजगारी की खबरें यदि सही हैं तो सरकार के पास ऐसा कोई अधिकृत आंकड़ा है या नहीं कि ऐसे कितने लोग पिछले 40 दिनों में निकाले गए हैं। उन्हें निकालने का कारण क्या है? यदि यह छंटनी नोटबंदी से उपजी परेशानियों के चलते की गई है तो क्या इस बात की गारंटी है कि सब कुछ ठीकठाक हो जाने के बाद निकाले गए लोग फिर से काम पर ले लिए जाएंगे?
संबंधित सरकारी एजेंसियां इस ओर ध्यान दे रही हैं या नहीं कि निकाले जाने से पहले श्रमिकों को उनका जायज हक मालिकों या कंपनियों ने दिया अथवा नहीं। और यदि नहीं दिया है तो सरकार ऐसे श्रमिकों और कर्मचारियों को उनका वाजिब हक दिलाने के लिए क्या कर रही है? ऐसा कैसे हो सकता है कि आप कालाधन खत्म करने का मोरपंख अपनी पगड़ी में खोंस लें और उधर उसके परिणामस्वरूप लोगों से उनका रोजगार ही नोच लिया जाए। इस बात की पूरी संभावना है कि नोटबंदी की आड़ लेकर कई कंपनियां और मालिक इस मौके को छंटनी के सुअवसर के रूप में देख रहे हों।
निश्चित रूप से ‘कालेधन की अर्थव्यवस्था’ खत्म होनी चाहिए, लेकिन जब हम यह बात करते हैं तो समानांतर रूप से इस तथ्य को भी स्वीकार कर रहे होते हैं कि देश में ‘कालेधन की अर्थव्यवस्था’ साथ साथ चल रही है। यदि हम इस काली अर्थव्यवस्था को रातोंरात खत्म भी कर दें तो भी उन लोगों का क्या होगा जो जाने अनजाने इस अर्थव्यवस्था से ही अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ कर पा रहे थे। उन्हें तो यह पता भी नहीं रहा होगा कि उनके पेट में रोटी जिस पैसे से आ रही है वह काला है या सफेद। ये लोग तो सिर्फ अपना पसीना ही बेच सकते हैं। उनके मुंह से कालेधन की ‘अनैतिक रोटी’ छीनने के बाद आपकी ही जिम्मेदारी है कि उनके पेट में कुछ ‘नैतिक निवाले’ तो जाएं…