गिरीश उपाध्याय। डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स पर बढ़ती लोकप्रियता और कंटेंट क्रिएशन की दौड़ में आज़ादी के नाम पर संवेदनशीलता की सारी सीमाएं ध्वस्त हो रही हैं। स्टैंड-अप कॉमेडी और ‘इंडिया गॉट लेटेंट’ शो जैसे मंचों ने हास्य और व्यंग्य को कथन की गंभीरता व गरिमा से निकालकर दूसरों का मज़ाक उड़ाने, अपमान करने और अश्लीलता फैलाने के औज़ार में बदल दिया है। इसी प्रवृत्ति पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कड़ी फटकार लगाते हुए सख़्त संदेश दिया है कि “माफी मांगकर कोई भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता।”
यूट्यूबर रणवीर अल्लाहबादिया और स्टैंड-अप कॉमेडियन समय रैना के शो India’s Got Latent में पिछले दिनों हुई एक बहस को लेकर आरोप लगाया गया है कि शो में स्पाइनल मस्क्युलर एट्रोफी (SMA) जैसी गंभीर बीमारी और उससे पीड़ित दिव्यांग व्यक्तियों का मजाक उड़ाया गया। क्योर SMA इंडिया फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि ऐसा कंटेंट पीड़ितों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने के साथ-साथ समाज में असंवेदनशीलता को भी बढ़ावा देता है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने इस मामले पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि प्रतिवादी पहले खुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश कर रहे थे और बाद में माफी मांग ली। यह प्रवृत्ति स्वीकार्य नहीं है। न्यायमूर्ति बागची ने स्पष्ट किया, “हास्य जीवन का हिस्सा है, लेकिन यह किसी को भी दूसरों का अपमान करने का अधिकार नहीं देता।” सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से डिजिटल कंटेंट और ऑनलाइन कॉमेडी के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश बनाने की मांग पर विचार करने को कहा। अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने कहा कि संपूर्ण प्रतिबंध वाले नियम बनाना कठिन है, लेकिन इस दिशा में गंभीर चर्चा चल रही है। अदालत ने टिप्पणी की कि नीतियां केवल घटनाओं पर प्रतिक्रिया न होकर भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए होनी चाहिए।
कभी हास्य और व्यंग्य समाज के लिए दर्पण हुआ करते थे। शरद जोशी, हरिशंकर परसाई या श्रीलाल शुक्ल जैसे व्यंग्यकारों ने अपनी रचनाओं से सत्ता और समाज पर तीखे प्रहार किए। लेकिन वे प्रहार विचारोत्तेजक थे, अश्लील नहीं। आज की तथाकथित स्टैंड-अप कॉमेडी अक्सर अभद्रता, निजी आक्षेप और अशोभनीय शब्दावली पर टिक गई है। ‘लेटेंट’ जैसे शो में मजाक की आड़ में दिव्यांगजनों, सामाजिक समस्याओं या गंभीर बीमारियों को हंसी का विषय बना देना न सिर्फ आपत्तिजनक है बल्कि समाज के नैतिक ताने-बाने को कमजोर करने वाला है। यह प्रवृत्ति खासकर युवाओं के बीच संवेदनशीलता को खत्म कर रही है। वे लाइक्स, व्यूज़ और वायरल होने की होड़ में ऐसा कंटेंट सामान्य मानने लगे हैं।
यूट्यूब, इंस्टाग्राम और अन्य प्लेटफॉर्म्स पर कंटेंट क्रिएशन ने करोड़ों युवाओं को रचनात्मकता के लिए मंच दिया है। यह सकारात्मक बदलाव है, लेकिन जब यह मंच समाज को चोट पहुंचाने का हथियार बन जाए तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या डिजिटल लोकतंत्र को ‘एथिकल गार्डरेल्स’ की जरूरत है। आज अधिकांश सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एल्गोरिदम आधारित हैं, जो सनसनीखेज और विवादित सामग्री को परोसने से बाज नहीं आ रहे। इस वजह से “ट्रोल कल्चर” और “वायरलिटी” सामाजिक संवेदनशीलता से अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। यही कारण है कि मजाक उड़ाने, गाली देने और अपमान करने वाला कंटेंट ‘एंटरटेनमेंट’ के नाम पर बेखौफ चलता है।
ऐसे मामलों में अक्सर लंबे मुकदमे चलते हैं और अपराधी माफी मांगकर बच निकलते हैं। इस वजह से कंटेंट क्रिएटर्स के बीच यह संदेश जाता है कि कानून की पकड़ कमजोर है। इस स्थिति और ऐसी मानसिकता को बदलने के लिए डिजिटल अपराधों और घृणास्पद कंटेंट के मामलों में फास्ट-ट्रैक कोर्ट और कठोर सजा का प्रावधान जरूरी है। जिस तरह यौन उत्पीड़न या साइबर अपराध के मामलों में विशेष अदालतें बनी हैं, वैसे ही डिजिटल प्लेटफॉर्म पर नैतिक और सामाजिक अपराधों के लिए भी विशेष कानूनी ढांचा होना चाहिए। माफी को सजा से बचने का साधन बनाने की प्रवृत्ति खत्म करनी होगी।
आज के बच्चे और युवा वही सीखते हैं जो वे डिजिटल प्लेटफॉर्म पर देखते हैं। जब वे देखते हैं कि दिव्यांगजनों या गंभीर बीमारियों का मजाक उड़ाना ‘एंटरटेनमेंट’ है, तो समाज में संवेदनशीलता, करुणा और नैतिकता जैसी मूल भावनाएं खत्म होने लगती हैं। ऐसे शो युवाओं को यह गलत संदेश देते हैं कि किसी की भावनाओं या तकलीफ को हल्के में लेना सामान्य है। वे हिंसक, अभद्र या अमर्यादित हास्य को ‘कूल’ समझने लगते हैं। इससे समाज में मानसिक असंवेदनशीलता बढ़ती है, जो अपराधों और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की जमीन तैयार करती है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला केवल एक व्यक्ति या शो की फटकार नहीं, बल्कि पूरे डिजिटल समाज के लिए चेतावनी है। यह समय है कि कंटेंट क्रिएटर्स समझें कि उनका हर शब्द, हर वीडियो, हर मजाक समाज पर असर डालता है। मीडिया और इंटरनेट को लोकतंत्र का बड़ा मंच माना जाता है, लेकिन यदि यह मंच नैतिकता और संवेदनशीलता से रहित हो जाए, तो यह लोकतंत्र को कमजोर करने वाला औजार बन सकता है। इसलिए कंटेंट की आज़ादी जिम्मेदारी के साथ होनी चाहिए। अब जरूरी हो गया है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के लिए सख्त ‘कम्युनिटी गाइडलाइन्स’ लागू की जाएं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक जिम्मेदारी के बीच संतुलन के लिए सरकार और समाज दोनों को सक्रिय होना होगा।
यह मामला एक अवसर है कि हम डिजिटल संस्कृति का पुनर्मूल्यांकन करें। ‘हास्य’ का मतलब कभी भी दूसरों को अपमानित करना नहीं था और न होना चाहिए। इसके लिए समाज के हर वर्ग को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। सरकार डिजिटल अपराधों के लिए सख्त कानून बनाए और फास्ट-ट्रैक कोर्ट स्थापित करे। सोशल मीडिया कंपनियां एल्गोरिद्म में बदलाव कर जिम्मेदार कंटेंट को बढ़ावा दें। समाज और परिवार बच्चों को संवेदनशीलता और सहानुभूति के मूल्य सिखाएं। सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी ने स्पष्ट कर दिया है कि माफी की ढाल अब काम नहीं आएगी। यह कदम सही मायनों में डिजिटल लोकतंत्र को अधिक जिम्मेदार, नैतिक और मानवीय बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है।